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उधार शब्द से ही अब मुझे चिड़ सी होने लगी है। किसी से उधार मांगना भी काफी मुश्किल है और किसी से उधार की रकम वापस लेना भी। उधार में दी गई रकम वापस कब लौटेगी इसकी भी कोई गारंटी नहीं है। उधार, मांगने की भी एक कला है। मांगने वाला ऐसा साबित करता है, कि दुनियां में उससे ज्यादा दुखी कोई नहीं है। कई बार तो उधार मांगने वाले अपने परिवार में किसी को बीमार बता देते हैं, तो कई बार किसी की मौत पर ही उधार मांगते हैं। हर बार अपनी आपबीती की नई कहानी उधार मांगने वालों के पास होती है। सीमित वेतन होने पर पहले मैने कभी ज्यादा बड़ी रकम उधार में नहीं दी। एक मित्र को 1993 में गैस के कनेक्शन के लिए छह सौ रुपये दिए। वो रकम वापस ही नहीं मिली। फिर वर्ष, 1997 में सहारनपुर में दूसरे मित्र को करीब तीन सौ रुपये दवा के लिए दिए। उसकी बहिन अस्पताल में बीमार थी। डाक्टर ने उसे दवा का पर्चा पकड़ा दिया। मित्र की बहन ने उसे पर्चा पकड़ा कर दवा लाने को कहा। बेचारा मेरा मित्र भाई का धर्म निभा रहा था। उसने पर्चा लिया और अस्पताल के बाहर आकर अगल-बगल झांकने लगा। मैं समझ गया कि उसके पास पैसे नहीं है और मैने उसे तीन सौ रुपये पकड़ा दिए। दवा पता नहीं कितने की आई, लेकिन मित्र ने मुझे वेतन मिलते ही रुपये देने का वादा किया। धीरे-धीरे कई माह गुजर गए। मुझे पैसे वापस मांगने में हिचक रही और शायद उसे देने में। तब मैने सोचा कि कभी किसी को उधार नहीं दूंगा।
इसके कई साल तक मैने किसी को उधार नहीं दिया, लेकिन उधार मांगने वालों के पास तो वाकई कला है। कैसे दूसरे की जेब से रकम निकालते हैं, यह हर एक के बस की बात नहीं। वर्ष 2006 की बात है। एक ठेकेदार ने मुझसे दोस्ती गांठी और दस हजार रुपये उधार मांग लिए। उसने कहा कि उसका कोई काम अटका हुआ है। छह माह में रकम लौटा देगा। इसकी एवज में वह मुझे आगामी छह माह का चेक भी देने लगा। मुझे उसकी बात पर विश्वास हो गया और मैने उससे दस हजार का चेक लिया और उसे नकद दस हजार रुपये दे दिए।
दस हजार रुपये मैने अपने छोटे बेटे को स्कूल में एडमिशन कराने के नाम पर रखे थे। मुझे जब उक्त रकम की जरूरत थी, तब तक ठेकेदार ने वापस देने का वादा किया था। निर्धारित समय आया, लेकिन ठेकेदार मित्र ने तो आजकल करते-करते तीन माह निकाल दिए। इस पर मैने अपने अन्य मित्रों की सलाह ली। पता चला कि उक्त ठेकेदार ने तो सभी को चूना लगाया है। सबसे कम राशि पर मैं ही ठगा गया।
मैने एक वकील मित्र के माध्यम से ठेकेदार के खिलाफ न्यायालय में मुकदमा कर दिया। तब भी वह यही कहता कि मैरे पैसे लौटा रहा है। अब तारिख लगती। न्यायालय से ठेकेदार को सम्मन्न जाते वह पुलिस वालों को पचास-सौ रुपये देकर यह लिखवा लेता कि इस पते पर कोई नहीं मिला। ऐसे में करीब चार साल गुजर गए। मैं कोर्ट में अपराधियों की भांति नजर आता, वहीं ठेकेदार आराम से अपने घर होता। तभी क्षेत्र की कोतवाली में मैरे एक मित्र की कोतवाल के रूप में तैनाती हुई। तब जाकर उसने सम्मन्न को रिसिव कराया और इसके बाद ही ठेकेदार का न्यायालय में उपस्थित होने का नंबर आया। न्यायालय में मेरा पक्ष मजबूत था। चेक तीन बार बाउंस हो चुका था। इसलिए ठेकेदार को सजा मिलना भी तय था। जब न्यायालय की कार्रवाई अंतिम चरण में थी, तब ठेकेदार ने मेरे कई मित्रों की सिफारिश लेकर मुझसे मुकदमा वापस लेने का आग्रह किया। फिर एक दिन ऐसा आया कि वो रकम लौटा ही गया। तब मैने मुकदमा वापस लिया। अपनी रकम वापस लेने में मुझे पूरे पांच साल लग गए। साथ ही करीब पच्चीस बार मुझे न्यायालय में भी उपस्थित होना पड़ा। तब से मैने यही तय किया कि किसी की मदद करनी है, तो उसे रकम देकर भूल जाओ, लेकिन उधार के नाम पर कभी कुछ न दो।
भानु बंगवाल
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