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ऐसा भी होता है…..

Anubhav
Anubhav
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धर्म व नैतिक शिक्षा देने वाले हमेशा काम, क्रोध, लोभ, मोह, द्वेष आिद को इंसान का सबसे बड़ा दुश्मन बताते हैं।वे सदा सदकर्म की राह पर चलने का संदेश देते हैं, लेकिन व्यवहारिक जिंदगी इसके ठीक उलट ही होती है।कई बार मनुष्य न चाहकर भी क्रोध, लोभ, द्वेष आदि के फेर में पड़ जाता है।मैने तो धर्म का उपदेश देने वालों को भी कई बार क्रोध में देखा है।एक बार करीब वर्ष 94 में ऋषिकेश में प्रवचन के दौरान आसाराम बापू का माइक खराब हो गया। इस पर वह सेवादारों पर भड़क गए, जबकि हर दिन वह क्रोध पर नियंत्रण की बात अपने प्रवचन पर कहते आ रहे थे।उस दिन जाने-अनजाने में उन्हें भी गुस्सा आ गया।
रही बात आम व्यक्ति की।वह तो होश संभालने के बाद से ही मेरा व तेरा के फेर मे पड़ जाता है।सभी बेशुमार दौलत कमाने की तमन्ना रखते हैं।उसके लिए हर संभव प्रयास करते हैं।यह प्रयास किसी-किसी का ही रंग लाता है।इसके बावजूद दौलत की भूख मिटती नहीं है।यह तो मानव प्रवृति है कि जितनी इच्छा की पूर्ति होती है, उतनी भूख बढ़ती जाती है।ऐसे ही थे एक पंडित जी।जो देहरादून में रायपुर क्षेत्र में रहते थे।उनके पास जमीन-जायदाद की कमी नहीं थी। या यूं कह लो कि कंजूसी करके पाई-पाई जुटाकर उन्होंने लाखों की संपत्ति अर्जित की।साठ पार करने के बावजूद भी वह पंडिताई में अच्छा कमा लेते थे।उनके चार बेटे व तीन बेटियां थी।सभी का विवाह हो चुका था और वे खुशहाल थे।
पंडितजी साइकिल से चलते थे।जब साइकिल मंे पंचर होता तो दुकान में नहीं जाते और खुद ही घर में पंचर लगाते।बार-बार पंचर होने पर जब वह परेशान हो गए, तो खर्च बचाने के लिए उन्होंने एक टोटका निकाला।सेळू (एक पेड़ की छाल, जिससे रेशे से रस्सी बनती है) के रेशे को साइकिल के रिम व टायर के बीच ट्यूब के स्थान पर भर दिया।फिर हो गई ट्यूबलैस साइकिल तैयार।सचमुच कंजूसी ने पंडितजी को प्रयोगवादी बना दिया।अब न तो साइकिल पंचर होने का डर था और न ही बार-बार खर्च करने का भय।जिंदगी खूब मजे में कट रही थी।बेशुमार दौलत तिजौरी में बढ़ती जा रही थी।
करीब पांच साल पहले की बात है।पंडितजी बीमार पड़ गए।उन्हें अपने बचने की आस नजर नहीं आई।ऐसे में पंडितजी ने सोचा कि आखिर यह दौलत किस काम की।क्यों वह दौलत के पीछे भागते रहे।अब उनका इस दुनियां से जाने का समय आ गया।दौलत तो यहीं रह जाएगी।अपना मन मारकर दौलत कमाई और उनके जाने के बाद यह दौलत दूसरों का मजा करेगी।पंडितजी ने अपने सभी बच्चों को बुलाया और उनके बीच संपत्ति का बंटवारा कर दिया।सभी को खेत, मकान व नकदी में हिस्सा दिया।फिर अपने जीवन की अंतिम घड़ियां गिनने लगे।एक-एक करके कई दिन गुजर गए।फिर महीने।पंडितजी को कुछ नहीं हुआ और वह भले चंगे हो गए।दौलत बांटी और खुद खाली हुए तो सेहत भी अच्छी हो गई।ठीक होने पर उनके भीतर लोभ जाग्रत हुआ।उन्हें पछतावा होने लगा कि उन्होंन जीते जी अपनी दौलत लुटा दी।बच्चे मौज कर रहे हैं और वह पैसों को तरस रहे।इस पर पंडितजी का मानसिक संतुलन बिगड़ गया।दौबारा से दौलत जुटाने की हिम्मत उनके पास नहीं थी।ऐसे में पंडितजी पागलों जैसी हरकत करने लगे।कभी जंगलों में भाग जाते और घरवाले उन्हें तलाशने में जुटे रहते।
पंडितजी के व्यवहार में हुए बदलाव का कारण तलाशने का उनके बच्चों में प्रयास किया।पता चला कि वह तो संपत्ति बांट कर खुद को लुटा महसूस कर रहे हैं।बच्चों के आगे उन्होंने यह उजागर नहीं किया, लेकिन सच्चाई यही थी।इस पर उनके बेटों व बेटियों ने आपस में धनराशि एकत्र कर पंडितजी को दी।यह राशि उतनी नहीं थी, जितनी वह पहले बच्चों को बांट चुके थे, लेकिन फिर भी इतनी थी कि पंडितजी के दिन आराम से कट सकते थे।इसके बाद पंडितजी लगभग पांच साल तक जिंदा रहे।हाल ही में उनकी मौत हुई।इस बार मौत से पहले मरने का अहसास होने पर भी उन्होंने अपनी जमा पूंजी का बंटवारा नहीं किया। उनकी मौत के बाद ही बच्चों ने आपस में पंडितजी की दौबारा जमा की गई राशि का बंटवारा किया।
भानु बंगवाल

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