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सस्ता लालच, बड़ा नुकसान…

Anubhav
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जब मैं छोटा था तब देखता था कि देहरादून के तिब्बती मार्केट (वर्तमान में इंदिरा मार्केट) में कपड़े की ठेली पर अक्सर लोगों की भीड़ रहती थी। ठेली पर पेंट, शर्ट के पीस होते थे। कपड़े बेचने वाला भी भीड़ जुटाने के लिए अलग तरीके का फंडा अपनाता था। वह चिल्लाता कोट, पैंट, सूट का कपड़ा दो-दो रुपये में। करीब तीस-पैंतीस साल पहले तक सस्ता जमाना तो था, लेकिन इतना भी नहीं कि दो रुपये में कपड़े मिल जाएं। हां दस या बारह रुपये में बच्चे की नेकर जरूर मिल जाती थी। दो रुपये में पेंट व शर्ट के कपड़े की लालच में ठेली पर जमकर भीड़ हो जाती। लोग कपड़ों को उलट-पलट कर देखने लगते। तभी कपड़े बेचने वाला किसी नाटक के सूत्रधार की तरह भूमिका बांधनी शुरू करता। वह कहता कि भाइयों व बहनों दो रुपये में कहीं भी कपड़ा नहीं मिल सकता। कंपनी की स्कीम के तहत वह कपड़ा बेच रहा है। वह एक पीस दिखाएगा। ग्राहकों को दो रुपये से बोली लगानी होगी। सबसे अधिक बोली लगाने वाले को कपड़ा बेचा जाएगा। यदि कपड़े की आखरी बोली इतनी कम लगी कि उससे कपड़े की कीमत वसूल नहीं हो रही है, ऐसे ग्राहक को कपड़ा बेचने की बजाय, दो रुपये ईनाम में दिया जाएगा।
बस क्या था कपड़े की बोली लगनी शुरू हो जाती। भीड़ लालच में कपड़े को जांचे परखे ही अपने-अपने हिसाब से बोली लगाती। आखरी बोली वाले को कभी कपड़ा बेचा जाता और कभी इतनी राशि में कपड़ा देने पर नुकसान बताकर दो रुपये दे दिए जाते। हर दिन जब मैं यह तमाशा देखने लगा तो मुझे इसके पीछे का खेल भी समझ आने लगा। भीड़ में शामिल कई लोग कपड़ा बेचने वाले के साथी होते थे। वे भीड़ में शामिल होकर बोली लगाते थे। इस बीच यदि कोई आम ग्राहक बोली लगाता तो उसके साथी आगे की बोली लगाते। ग्राहक की बोली में यदि कपड़े की लागत निकलती, तो उसे कपड़ा बेच दिया जाता। अन्यथा विक्रेता के साथी ही आगे बोली बढ़ाकर ईनाम की राशि लेते। इस खेल में सस्ते कपड़े को महंगी कीमत में खरीदकर हर दिन काफी संख्या में लोग ठगे जाते।
आज देखता हूं कि तब की तरह आज भी सस्ते लालच के फेर में पड़कर लोग अक्सर ठगी का शिकार हो जाते हैं। बाजार का सीधा फंडा यह है कि एक के साथ एक मुफ्त, गिफ्ट आयटम की आफर दी जाए तो कबाड़ के भी जल्दी खरीददार मिल जाते हैं। अक्सर मैं इसी तरह की ठगी के किस्से पत्नी व अपने साथियों को सुनाता रहता हूं। इसके पीछे मेरा मकसद यही होता है कि लालच के फेर में पड़कर वे भी ऐसी गलती न कर बैठें। खुद को मुसीबत में बताकर सस्ते में सोना बेचने वाले ठग अक्सर सड़कों पर लोगों को मिल जाते हैं। यदि कोई लालच में फंसा तो वह सोने के बदले अपनी अंगूठी व चेन तक ऐसे ठगों को सौंप देता है और बदले में उससे नकली सोना ले बैठता है। वह यह भी नहीं समझ पाता है कि सोने के बदले वह सोना क्यों दे रहा है। फिर भी लालच ऐसी बला है कि इसके आंखों में समाते ही व्यक्ति को सही व गलत की सूझ भी नहीं रहती।
बात करीब छह साल पहले ही है। एक दिन दोपहर के समय मेरी पत्नी का फोन आया कि सीधे घर चले आओ। अचानक ऐसे फोन से किसी अनहोनी की आशंका से मैं डर गया। मैने पछा कि पहले बता माजरा क्या है। उसने बताया कि एक व्यक्ति ने सोना चमकाने के नाम पर उसकी चेन टुकड़ों में बदल दी। उसे पड़ोसियों की मदद से घर में बैठाया हुआ है। मैं समझ गया कि लालच में पड़कर मेरी पत्नी भी चेन गंवा बैठी। घर पहुंचा तो करीब 19 वर्षीय युवक को आंगन में बैठा देखा। पत्नी ने बताया कि वह युवक अपने एक साथी के साथ आया था। उसने कहा कि सोना चमकाने का पाउडर बेच रहा है। सेंपल के तौर पर उसने एक पुड़िया पत्नी को दी। कहा कि इसकी परख खुद ही कर सकते हो। मुफ्त का चंदन घिस मेरे नंदंन वाली कहावत का परिणाम कितना नुकसानदायक होगा, यह शायद पत्नी को भी नहं पता था। उसने पाउडर लिया और चेन में लगाया। इस पर युवक ने कहा कि आपने चेन पर गलत तरीके से पाउडर लगा दिया। अब चेन काली पड़ जाएगी। इस पर पत्नी ने उसे चेन को ठीक करने को कहा। बस यही वह चाहता था। उसने एक कैमिकल के घोल में चेन डुबाई। यहां युवक भी चूक कर गया, या फिर वह ठगी की इस लाइन का नया खिलाड़ी था। ज्यादा लालच के फेर में उसने चेन को कुछ ज्यादा ही देर केमिकल में डूबा दिया। चेन का सोना गलकर केमिकल में घुलता चला गया। सोना कुछ ज्यादा ही कम हो गया और चेन कमजोर पड़कर कई हिस्सों में टूट गई। यदि चेन नहीं टूटती तो मेरी पत्नी को इस ठगी का पता भी नहीं चलता। अब झगड़ा चेन ठीक करने को लेकर हो रहा था। तब तक युवक का साथी मौका पाकर भाग चुका था। वह उस रसायन को भी साथ ले गया, जिसमें चेन का सोना घुला हुआ था। इस युवक को पुलिस के हवाले कर दिया गया। पुलिस भी उससे उसके साथी का नाम व पता, गिरोह के संचालक का नाम आदि नहीं उगलवा सकी। करीब डेढ़ तोले की चेन में मुश्किल से आधा तोला ही सोना बचा था, जो हमें कभी वापस नहीं मिला। घटना के दो साल बाद न्यायालय का सम्मन घर आया, उसमें पत्नी को बयान के लिए उपस्थित होने को कहा गया। तब तक वह घटना की तारिख व वार तक भी भूल गई थी। खैर कोर्ट में पहुंचकर हमें ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जैसे हम भी अपराधी हों। दूसरे तो हमें भी अपराधी की ही नजर से देख रहे थे। करीब चार घंटे में तीन घंटे अपनी बारी के इंतजार में व एक घंटा बयान में बीता। तब जाकर छुटकारा मिला। युवक को सजा हुई या नहीं हुई, इसका मुझे पता नहीं है। हां एक दिन उस युवक को मैने देहरादून के एक मोहल्ले की गली में जरूर देखा। उसकी पीठ वही झोला लटका हुआ था, जो हमारे घर आने के दौरान उसके पास था। शायद उसके झोले में सोना घोलने वाले वही केमिकल थे, जिससे वह सोना चमकाने के नाम पर सोना गायब कर देता है। ………….
भानु बंगवाल

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