Menu
blogid : 9484 postid : 185

गुरु आपके कितने रूप….

Anubhav
Anubhav
  • 207 Posts
  • 745 Comments

जब गुरु की चर्चा आती है, तो मेरे जेहन में बचपन से लेकर बड़े होने तक स्कूलों में पाठ पढ़ाने वाले गुरुजी की तस्वीर उभरने लगती है। फिर मैं एक-एक के व्यक्तित्व पर गौर करने लगता हूं कि कौन से गुरुजी बेहतर थे। किस गुरु ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया। कौन से गुरुजी ही मेरे सच्चे गुरु थे। तब मैं तय कर नहीं पाता कि किस गुरु को यह दर्जा दिया जाए, जो मेरा सच्चा गुरु कहलाने के काबिल हो।। क्योंकि मुझे तो एक गुरु नहीं मिला। मुझे तो पग-पग में गुरु मिले और अपना ज्ञान बांटते चले गए, जो आज भी बांट रहे हैं। सिर्फ देखने का नजरिया है। हम जब गुरु को परिभाषित करते हैं। उसके बारे में चर्चा करते हैं तो हमें स्कूली शिक्षा के गुरु ही नजर आते हैं। अन्य गुरु को हम भूल जाते हैं, जो हमें जीवन के हर मोढ़ पर मिलते हैं।
गुरु तो सिर्फ ज्ञान बांटता है, उसे जो तेजी से ग्रहण करता है, वही गुरु का लाडला शिष्य हो जाता है। बचपन में मुझे गुरु शब्द से ही भय लगता था। जब सरकारी स्कूल में पढ़ने पहली जमात में गया तो वहां गुरु मुझे किसी दैत्य से कम नहीं लगे। बात-बात पर बच्चों की पिटाई। गुरु ने किताब खोली हुई थी। उनके बगल में खड़ा होकर मैं हिंदी की कविता- (लाठी लेकर भालू आया, छम-छम) सुना रहा था। गुरु ने एक कागज लिया और सारे अक्षर छिपा दिए। फिर एक अक्षर को पहचानने को कहा। अक्षर ज्ञान तो मुझे था ही नहीं, मै तो कविता को रटे हुए था। मैने तुक्का मारा लाठी। तभी गुरू के हाथ में रखी डेढ़ फुटी लाठी मेरी हथेली में पड़ी। फिर एक-एक शब्द को पहचानकर उसे जोड़ना मुझे गुरु ने बताया। मैं रो रहा था और कविता को गा कर भी सुना रहा था। उस दिन से मुझे गुरु से डर लगने लगा। तब मुझे यह ज्ञान नहीं था कि गुरु का डंडा मेरी भलाई के लिए ही है। आठवीं जमात में पहुंचा तो मुझे गणित में दिक्कत आने लगी। ट्यूशन पढ़ाने के लिए पिताजी के पास पैसे नहीं थे। मेरे घर के निकट दृष्टिहीनों की कार्यशाला थी। वहां दृष्टिहीन व्यक्ति कु्र्सी, कंबल व शाल बुनते थे। इस कार्यशाला में राजेंद्र नाम का युवक जो एमए पास था, चपरासी के पद पर भर्ती हुआ। सर्दियों में कार्यशाला के बगल में मैदान पर बैठकर मैं सवाल सुलझाने का अभ्यास करता। जहां अटकता वहां राजेंद्र से पूछ लेता। मैं सीख रहा था और राजेंद्र को सिखाने में मजा आने लगा। वह नियमित रूप से मुझे पढ़ाने लगा। बगैर किसी ट्यूशन फीस व लालच के। दसवीं में अंग्रेजी में दिक्कत आई। मेरी माताजी ने कहा कि परीक्षा के दौरान एक-दो माह की ट्यूशन पढ़ ले। वह घर के खर्च से कटौती कर बीस-तीस रुपये ट्यूशन फीस का जुगाड़ कर देगी। ट्यूशन के लिए मैं एक कोचिंग सेंटर गया। वहां गुरु की फीस करीब सौ रुपये थी। फीस सुनकर मैं मायूस हो गया, लेकिन गुरु को मुझ पर न जाने कैसे तरस आया और उन्होंने फ्री में पढ़ाने की बात कही। इस गुरु की कृपा से मैं दसवीं में अंग्रेजी में फेल होने से बच गया।
दसवीं में ही मेरा एक विषय औद्योगिक रसायन था। इसे पढ़ाने वाले गुरु को न जाने क्यों बच्चे चूहा कहते थे। इसके बावजूद यह गुरु वाकई कमाल के थे। बच्चों को डरा धमका कर वेह एक-एक पाठ याद करा देते थे। साथ ही प्रेक्टिकल भी वह बारिकी से सिखाते थे। बोर्ड परीक्षा का परिणाम जब आया तो पता चला कि प्रेक्टिकल में मुझे इस गुरु ने अपने बेटे से भी ज्यादा अंक दिलाए। ये तो थे मेरे स्कूली गुरु। बाहरवीं के बाद में पढ़ाई के साथ छोटे-मोटा रोजगार भी करने लगा। मेरा संपर्क एक ऐसे सफल ठेकेदार से हुआ, जो पहले मजदूर था। कड़ी मेहनत व लगन की प्रेरणा मुझे सुखराम नामक इस गुरु से मिली। साथ ही पितांबर नाम के दृष्टिहीन व्यक्ति ने मुझे दृढ़ इच्छा शक्ति व बुलंद हौंसले का पाठ पढ़ाया। बचपन से आंखों की रोशनी खो चुके पितांबर चौहान को दृष्टिहीन होने के कारण टिहरी में एक विद्यालय ने प्रवेश देने से मना कर दिया था। बाद में हर क्लास प्रथम श्रेणी से पास कर वह उसी विद्यालय का गौरव बने। दृष्टिहीन होने के बावजूद ऊंचे पेड़ों पर चढ़ने में भी पितांबर माहिर थे। उन्हें देखकर ही मेरे मन में धारणा बनी कि दृढ़ इच्छाशक्ति हो तो कोई भी काम मुश्किल नहीं है।
दब्बू व झेंपू स्वभाव मेरा बचपन से ही था। यह प्रवृति टूट नहीं पा रही थी। जब पत्रकारिता की लाइन में आया तो मेरे भीतर की इस आदत को भगाने में मेरे मित्र तोपवाल ने मदद की। किसी भी व्यक्ति से बेधड़क मिलना और उससे बातें करना आदि की सीख मैने अपने इस मित्र से ली। साथ ही लिखने की कला को मैने उस गुरु से सीखा, जिसका नाम जयसिंह रावत है। वही, समाचार की एक-एक लाइन को पढ़कर उसमें और क्या बेहतर गुंजाइश हो सकती है, इसका मंत्र बताते थे। कई बार तो हमारे गुरु वे भी होते हैं, जो हमसे सीखने के लिए आते हैं। ऐसा ही एक युवा मुझे ऋषिकेश में मिला। वह पत्रकारिता सीख रहा था। हर रोज मेरे साथ घूमता था। वर्ष 94 की बात है। तब उत्तराखंड आंदोलन चल रहा था। दो अक्टूबर को मुजफ्फरनगर में गोलीकांड हो गया। उसकी प्रतिक्रया के चलते आंदोलनकारी तीन अक्टूबर को सड़कों पर आ गए। ऋषिकेश के नटराज चौक के पास पुलिस व आंदोलनकारियों के बीच जमकर संघर्ष होने लगा। मैं अपने इस चेले को साथ लेकर मोटर साइकिल से चौक की तरफ आगे बढ़ रहा था। तभी गोली चलने की आवाज आने लगी। युवक ने मुझसे कहा कि आगे मत जाओ, खतरा है। मैंने उसे कहा कि नकली गोली चल रही होगी। मौके पर जाकर ही देखेंगे क्या माजरा है। तभी मुझसे कुछ दूर एक युवक सड़क पर गिरा और उसके कपड़े खून से रंग गए। उसे गोली लगी थी। तब हम सुरक्षित स्थान को भागे और तभी कर्फ्यू की घोषणा कर दी गई। यहां मुझे अपने अनुभव की बजाय उक्त युवक की समझदारी काम आई। सच ही तो है, जो देता है, जिससे हम ग्रहण करते हैं, वही हामरा गुरु है। ऐसे गुरु किसी न किसी रूप में हमें मिलते रहते हैं। वह घर में माता के रूप मे होता है, बाहर मित्र के रूप में, कहीं गुरु एक बच्चे के रूप में हो सकता है तो कहीं वह एक भिखारी के रूप भी मिल सकता है। सिर्फ उन्हें पहचानने का नजरिया चाहिए। जिनसे मैने जीवन के हर पग पर ज्ञान अर्जित किया, ऐसे गुरुओं को मेरा शत-शत नमन।
भानु बंगवाल

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply