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यही है कड़ुवा सच….

Anubhav
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वर्ष 1989 में सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्ति के बाद पिताजी ने देहरादून के आर्यनगर में एक छोटा का मकान खरीदा। इस मोहल्ले में पिताजी की नाम राशि का एक अन्य व्यक्ति भी था, जिसका पता हमें नए मकान में रहने के कई दिनों बाद चला। गढ़वाल की बंगवाल जाति के होने के बावजूद पिताजी ने सरकारी नौकरी में अपने नाम के आगे बंगवाल की जगह शर्मा लिखवाया। साथ ही हम दोनों भाई के नाम के आगे भी स्कूल में दाखिले के वक्त शर्मा ही लिखवा दिया गया। खैर इस नाम में क्या रखा है। फिर भी पिताजी के नाम कुलानंद शर्मा के नाम वाला हमारे मोहल्ले में एक अन्य व्यक्ति भी था। इसका पता हमें तब चला, जब दूसरे कुलानंद शर्मा की चिट्ठी-पत्री हमारे घर पहुंचती। पत्र लिखने वाले को जब हम जानते ही नहीं थे तो पहले इसी उधेड़बुन में रहे कि आखिर किसने हमें पत्र लिखकर मजाक किया है। बाद में पता चलाकि एक अन्य भी व्यक्ति पिताजी के नाम वाला है। अक्सर उसकी बेटी ससुराल से अपने पिता को पत्र भेजती थी। पोस्टमैन भी गफलत में पता ठीक से नहीं देखता और पत्र बदल जाते। बाद में हम पत्र को सही स्थान तक पहुंचा देते। यह क्रम तब तक चला जब तक एक नाम वाले दोनों व्यक्तियों की मौत नहीं हो गई। मौत भी दोनों की एक ही दिन हुई। यानी छह जनवरी, 2000 को। हालांकि दोनों की मौत का समय अलग-अलग था। यहां भी शोक मनाने वाले गफलत में रहे। हमारे परिचित या जिन रिश्तेदारों ने पहले से हमारा घर नहीं देखा था, उनमें से कई दूसरे शर्माजी के घर पहुंच गए। इसी तरह उनके कई परिचित तेहरवीं में हमारे घर पहुंचकर ब्रह्मभोज तक कर गए। जब उन्हें वास्तविकता पता चली, फिर वे दूसरे शर्मा जी के घर गए। यह था महज एक संयोग।
कई बार ये संयोग भी ऐसे होते हैं कि इससे व्यक्ति अंधविश्वासी होने लगता है। वर्ष 2001 में सड़क पर बेहोश व्यक्ति को कोई उठाकर देहरादून के दून चिकित्सालय में भर्ती करा गया। उस बीमार व्यक्ति ने करीब तीन दिन बाद अस्पताल में दम तोड़ दिया। चिकित्सक ने उसे मृत घोषित कर दिया। साथ ही लावारिश होने के कारण शव को मॉर्चरी में रखवा दिया गया। अगले दिन सुबह पोस्टमार्टम के लिए पुलिस पंचनामा भरने पहुंची। जब शव को कपड़ा लपेटकर सील किया जा रहा था तो देखा कि जिसे चिकित्सक ने मरा घोषित किया था, वह तो जिंदा है। इस पर उसे दोबारा वार्ड में भर्ती करा दिया गया। हालांकि गलती पर चिकित्सक बौखलाए हुए थे। ऐसे में उन्होंने उस व्यक्ति को बचाने के कोई प्रयास नहीं किए। सर्दी में भी उसे पर्याप्त कंबल तक नहीं दिए गए। उपचार में लापरवाही के चलते वह व्यक्ति ज्यादा दिन जिंदा नहीं रह सका। उसके मरने पर उक्त डॉक्टर ने जरूर राहत महसूस की होगी, जिसने पूर्व में उसे मृत घोषित कर दिया था।
इस तरह के कई उदाहरण हैं, जब चिता में आग लगाने से पहले मृत समझे जाने वाले व्यक्ति में हरकत होने लगती है और उसे स्वर्ग से लौटा हुआ मान लिया जाता है। इसके विपरीत हकीकत यह होती है कि जिसे हम मृत समझते हैं, वह मरता ही नहीं है। व्यक्ति की नब्ज इतनी धीमी होती है कि कई बार पकड़ में नहीं आती। ऐसी परिस्थितियों में व्यक्ति बेहोशी की दशा में होता है। कई बार वह सपने भी देखता है। यदि होश में आने के बाद उसे सपना याद रहता है तो वह पुनर्जन्म की धारणा को आगे बढ़ाते हैं। ऐसे व्यक्ति को यदि बेहोशी की दशा के सपने याद रहें तो अमूमन वे एक ही बात कहते हैं कि वह ऊपर गया। वहां एक दरबार लगा था। सिंहासन पर यमराज बैठे थे। जब मुझे दूत दरबार में ले गया तो यमराज के कहा कि गलत व्यक्ति को ले आए। इसे वापस ले जाओ, अभी इसका वक्त नहीं आया है। ऐसी कहानी कुछ और भी हो सकती हैं, लेकिन सभी में देवता या दूत की गलती के बाद व्यक्ति को वापस भेजा जाता है। अब सवाल यह उठता है कि कहानी सुनाने वाला यदि हिंदू था, तो उसे यमराज या हिंदू देवता ही दिखाई दिए। यदि वह मुसलमान या फिर ईसाई होता तो उसे भगवान किस रूप में दिखाई देता। क्योंकि हमने भगवान की जो काल्पनिक छवि अपने दिमाग में बना रखी है, या फिर हमारे दिमाग में बचपन से भर दी गई है, हमें उसी रूप में वह नजर आते है। ऐसे में हिंदू को हिंदू, मुसलमान को मुस्लिम, ईसाई को उनके धर्म के अनुरूप ही स्वर्ग का माहौल नजर आएगा। फिर सवाल उठता है कि क्या भगवान भी जाति के आधार पर बंटे हैं। हकीकत यह है कि ना तो व्यक्ति कहीं बाहर से आता है और न ही मरने के बाद कहीं बाहर जाता है। व्यक्ति यहीं पैदा होता है और यहीं मर भी जाता है। उसने ही मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे बनाए हैं और उसने ही व्यक्ति को जाति व धर्म में बांटा है। वही अपने भगवान की कल्पना करता है, लेकिन उस असली भगवान को भूल जाता है, जो मनुष्य के भीतर है।
इसे कुछ इस तरह से समझा जा सकता है कि एक बीज से नई पौध उगती है। पौध पेड़ का रूप लेती है। पेड़ में फल लगते हैं। फल में बीज होते हैं। उन बीजों से नई पौध पैदा होती है। यही सिद्धांत मानव व अन्य प्राणी में भी लागू होता है। व्यक्ति पैदा हुआ, बड़ा हुआ, उसके बच्चे हुए, वह बूढ़ा हुआ और एक दिन मर गया। यानी यदि पेड़ को काटा नहीं गया, हवा आंधी या फिर किसी बीमारी से वह नष्ट नहीं हुआ तो एक दिन बूढ़ा होकर जमीन से जड़ छोड़ देगा।
मेरा यह स्पष्ट मानना है कि जो पैदा हुआ उसका नष्ट होना निश्चित है। फिर पुनर्जमन्म कहां से आ गया। पुनर्जन्म की बात करने वाले तर्क देते हैं कि आत्मा अजर, अमर है। वह तो शरीर रूपी चोला बदलती है। यदि चोला ही बदलना है तो नए शरीर की आत्मा को क्या आवश्यकता है। किसी मृत शरीर में क्यों नहीं जाती। फिर हम यह भी देख सकते हैं कि यदि आत्मा शरीर रूपी चोला बदलती है तो इस संसार में पैदा होने व मरने वालों की संख्या बराबर होनी चाहिए। यहां चोला बदलने के सिद्धांत वाले तर्क देंगे कि मानव का शरीर लाखों चोला बदलने के बाद मिलता है। यहां मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि जब सृष्टि की रचना हुई। इस धरती पर जीवन आया तो उस समय प्राणी की संख्या गिनती भर की रही होगी। तब मनुष्य, कीड़े- मकोड़े, पशु व अन्य जीव जितने रहे होंगे आज उनकी संख्या में हजारों से लाखों गुना की वृद्धि हो चुकी है। यानी तब जितनी आत्मा थी, आज उनकी संख्या भी ज्यादा हैं। क्योंकि आत्मा तो चोला बदलती है। ऐसे मे निरंतर बढ़ रही प्राणियों की संख्या के लिए अलग से आत्मा कहां से आ रही हैं। स्पष्ट है कि नए शरीर बनने के साथ ही नई आत्मा भी वन रही है। शरीर के नष्ट होने के बाद आत्मा रूपी चेतना भी नष्ट हो जाती है। चोला बदल जैसी चीज कुछ भी नहीं।
जब मनुष्य ने इस धरती पर जन्म लिया और यहीं पर हमेशा के लिए मिट जाना है, तो हम अगले जन्म को सुधारने की बात को लेकर क्यों कर्म करते हैं। इसी जन्म को हमें बेहतर बनाना चाहिए। भगवान कहीं बाहर नहीं है, बल्कि हर व्यक्ति में समाया हुआ है। उसमें भगवन भी है और राक्षस भी। हम जिस गुण को विकसित करेंगे हमारी प्रवृति वैसी ही हो जाएगी। सदकर्म करेंगे तो जीवन आनंदित होगा। और यदि रोते रहे, दूसरों को दुख देते रहे, तो हम हमेशा दुखी रहेंगे। व्यक्ति अच्छे या बुरे कर्म से याद किया जाता है। अच्छों की अच्छाई अमर हो जाती है और बुरों की बुराई। अच्छाई को अपनाने के लिए सभी प्रेरित करते हैं, और बुराई से नसीहत ली जाती है। यदि यह शरीर नष्ट हुआ तो दोबारा नहीं आता। यही इस जीवन की कड़वी सच्चाई है।
भानु बंगवाल

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