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बेईमानी की पाठशाला….

Anubhav
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मैं पिछले कई दिनों से देख रहा था कि मांगेराम उदास चल रहे हैं। पहले की तरह वह किसी से ज्यादा नहीं बोलते और न ही समाचार पत्र पढ़ने के बाद अपनी प्रतिक्रिया ही देते। मुझे यह बात काफी अटपटी लग रही थी। जो मांगेराम हर छोटी-बड़ी बात पर बहस का पिटारा खोल देते थे, उनका चुप रहना काफी अजीबोगरीब स्थिति थी। मुझे वह मिले तो मैने उन्हें काफी कुरेदा लेकिन वह चुप्पी का कारण नहीं बता पाए। सिर्फ इतना ही बोले कि यार कहीं ऐसा ट्रेनिंग सेंटर नहीं है, जहां झूठ बोलना व चापलूसी करनी सिखाई जाती हो। मांगेराम जी के मुख से ऐसी बात सुनकर मैं हैरत में पड़ गया। मैने कहा कि आज तुम्हें क्या हो गया है। जो व्यक्ति हमेशा आदर्श की बात करता है, उसे अब चापलूसी व झूठ की जरूरत क्यों पड़ गई। इस पर उनका जवाब था कि अब ईमानदारी से गुजारा नहीं चलता। हर दिन महंगाई बढ़ रही है। लोग एक-दूसरे का गलाकाट कर आगे बढ़ रहे हैं। ऐसे में ईमानदारी की अब आवश्यकता तक नहीं रह गई है। यदि मैंने भी कहीं से बेईमानी का सबक पढ़ा होता तो आज नमक, तेल, गैस सिलेंडर, आटा, चावल के दाम याद करने की जरूरत नहीं पढ़ती।
मैने कहा कि ऐसी कई पाठशालाएं हैं, जहां अभी भी बेईमानी व चापलूसी का पाठ सीखने जा सकते हो। ये पाठशालाएं हैं राजनीतिक दल। किसी दल की सदस्यता ले लो। कर्मठ कार्यकर्ता बन जाओ और देखो हर गुण में आप निपुण हो जाओगे। छोटे दल में जाओगे, तो छोटी बेईमानी सीखोगे, बड़े दल में जाओगे तो बड़ी बेईमानी में महारथ हो जाओगे। साथ ही बिजनेसमैन भी बन जाओगे। क्योंकि राजनीति देश सेवा तो रही नहीं, यह तो एक बिजनेस हो गया है। आज से बीस-तीस साल पुराने विधायकों को देख लो। इनमें कई बेचारे जब इस दुनियां से विदा हुए, तो उनके पास फूटी कौड़ी तक नहीं थी। अब आजकल के नेताओं को देखो राजनीति में आते ही उनकी जेब लगातार भारी होने लगती है। न तो उन्हें नमक, तेल का भाव याद रखना पड़ता है और न ही कोई चिंता रहती है।
मेरे सुझाव पर मांगेराम जी बोले। इस सुझाव पर मैं भी पहले मनन कर चुका हूं, लेकिन नतीजा शून्य नजर आता है। अब मेरी जेब भी इतनी पक्की नहीं है कि वहां अपने पांव जमा लूं। मैने कहा कि राजनीति का जेब से क्या संबंध है। वहां तो समय देना है। झूठ बोलना है और लोगों की सेवा करनी है। इस सेवा के बदले कमीशमन के रूप में मेवा मिलेगा। सारे दुख हमेशा के लिए दूर हो जाएंगे। मांगेराम जी बोले- राजनीति तो सबसे बड़ा बिजनेस बन गई है। इसमें अब हमारे जैसे लोगों की क्या औकात है। हर माह एक न एक घोटाले की खबर पूरे देश में फैलती है। पहले लोग ऐसी खबरों से चौंका करते थे, लेकिन अब यह सामान्य बात नजर आने लगी है। तभी तो सोनिया के दामाद वाड्रा के मालामाल के समचार ने भी उन्हें नहीं चौंकाया।
वह बोले कि राजनीति करने में पहले जैब से पैसे बहाने पड़ते हैं। तन, मन से किसी दल की सेवा करने से काम नहीं चलता, जब तक धन से सेवा न की जाए। हां इस बिजनेस में पैसे लगाने के बाद यदि स्थापित हो गए तो बाद में वसूली हो जाएगी। फिर आपके साथ ही रिश्तेदार भी मालामाल होने लगेंगे। यदि राजनीति में स्थापित नहीं हुए तो सारी पूंजी भी डूब जाएगी। मैने कहा कि मांगेराम जी आपकी समाज में अच्छी प्रतिष्ठा है। इन दिनों उत्तराखंड में टिहरी लोकसभा के उपचुनाव को लेकर मामला गरम है। एक बड़ी रानीतिक पार्टी में पिछले छह माह से देहरादून शहर अध्यक्ष का पद रिक्त चल रहा है। मौका अच्छा है। आप ईमानदार हैं। पार्टी ज्वाइन करो। हो सकता है कि आपको शहर अध्यक्ष का पद मिल जाएगा और आपकी राजनीतिक पारी की शानदार शुरूआत भी हो जाएगी।
मांगेराम जी बोले कि इस पर भी मैने विचार किया। पर वहां तो कई लोचा हैं। हर पार्टी की तरह इस पार्टी को भी कर्मठ, ईमानदार के साथ ही जेब से भारी अध्यक्ष चाहिए। पहले एक पनीरवाला शहर अध्यक्ष था। वह कई साल तक रहा। बड़े नेताओं की प्रैस कांफ्रेंस का खर्च, हर दूसरे दिन विपक्षी दलों के खिलाफ प्रदर्शन करने वालों की चाय व पानी, बाहर से आने वाले नेताओं के रहने व खाने की व्यवस्था भी तो पनीरवाले को ही अपनी जेब से करनी पड़ती थी। जेब से पैसा लगाया और उसका बिजनेस बड़ा। शराब के व्यवसाय में भी उसकी पत्ती चलने लगी। उसके बाद दूसरा अध्यक्ष बना। वह भी हर माह करीब पचास हजार रुपये अपनी जेब से लगा रहा था। एक दिन बड़े नेताओं की आवाभगत सही ढंग से नहीं हुई तो अध्यक्ष की कुर्सी चली गई। अब इस राष्ट्रीय दल को कमाई करने वाले अध्यक्ष की तलाश है। मेरी जेब खाली है, ऐसे में मेरी आवश्यकता न तो किसी दल को है और न ही किसी व्यक्ति को। मांगे राम जी की बातें सुनने के बाद मैं यही कह सका कि बेईमानी आपसे होगी नहीं, ऐसे में ईमानदार बनकर ही संतोष करो। क्योंकि यह समय ऐसा है कि हरएक खुद को ईमानदार व दूसरे को बेईमान बताता है। जब तक बेईमानी का मौका नहीं मिलता तो ईमानदार बनकर ही रहो। हो सकता है इससे आपको आत्मीय संतुष्टी जरूर मिलेगी।
भानु बंगवाल

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