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मोहब्बत की रामलीला…

Anubhav
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एक समय ऐसा था, जब पितृ पक्ष में रामलीला की तैयारी चल रही होती थी। गांव, शहर व मोहल्लों में रामलीला कमेटियों के अंतर्गत इन दिनों रामलीला की रिर्हलसल शुरू हो जाती थी। नवरात्र शुरू होते ही रामलीला भी शुरू होती और दशहरे के आसपास रामलीलाओं का समापन होता। रामलीलाएं आज भी हो रही हैं, लेकिन इनके पंडाल सिमटते जा रहे हैं। इनकी संख्या भी गिनती भर की रह गई है। बचपन में मुझे रामलीला खूब भाती थी। क्योंकि तब टेलीविजन होते नहीं थे। सिनेमा बामुश्किल से छह माह या साल में एक बार ही देखा जाता था। ऐसे में रामलीला के पात्र ही लोगों का आदर्श होते थे। फिल्म के हीरो के बाद रामलीला के पात्रों की भी काफी धाक होती थी। या यूं कहें कि राम व लक्ष्मण की भूमिका निभाने वालों पर युवतियां जान छिड़कती थी। कहते हैं कि व्यक्ति जैसा करता है, सोचता है, वैसा ही बन जाता है। लेकिन, रामलीला के पात्रों के लिए यह अवधारणा मुझे उलट बैठती नजर आई। रामलीला के राम व लक्ष्मण के पात्र आदर्श पुरुषों का चरित्र को निभाने के बाद भी अपने चरित्र में जरा सा बदलाव नहीं ला सके। आम युवाओं की तरह उनकी आदतें रही। ऐसे में जब मैं बड़ा होने लगा तो मुझे रामलीला कला व संस्कृति को आगे बढ़ाने का ही माध्यम लगी। इसके माध्यम से दी जा रही शिक्षा व समाज में बदलाव की अपेक्षा मुझे बेमानी नजर आने लगी। क्योंकि साल भर हम अच्छा वर्ताव न करें और दिन विशेष पर ही अच्छे बनने की कोशिश करें तो इसका ज्यादा असर नजर नहीं आता है।
उस वक्त रामलीला के कुछ पात्र ऐसे थे, जिनकी डिमांड कई रामलीलाओं में थी। उन्हें एक कमेटी की रामलीला में अभिनय करने के बाद दूसरे गांव की रामलीला में भी अभिनय करना पड़ता था। ऐसे में जब एक स्थान पर चल रही रामलीला का समापन होता तब ही दूसरी रामलीला की शुरूआत होती। अच्छे पात्रों को मेहनताना भी मिलता था।
जब में 12 वीं में पढ़ता था, उस समय देहरादून की एक रामलीला में लक्ष्मण की भूमिका निभाने वाले युवक पर युवतियां काफी आकर्षित होती थी। इस युवक को कई नाम से पुकारा जाता था, लेकिन मुझे उसका एक नाम आज भी याद है। वह नाम था मोहब्बत। युवक हिंदू था, उस पर एक नाबालिक किशोरी फिदा हो गई। वह नवीं में पढ़ती थी। उसकी माता का देहांत हो चुका था। पिता सरकारी नौकरी में थे। उसका बड़ा भाई मेरा मित्र था, जो मुझसे एक साल बड़ा था। भाई तो समझदार था, लेकिन घर में मां न होने के कारण युवती को अच्छा-बुरा समझाने वाला कोई नहीं था। मोहल्ले की महिलाओं की टोली के साथ युवती भी रामलीला देखने जाती। मोहब्बत को यह अहसास हो गया कि युवती उसकी तरफ आकर्षित हो रही है। ऐसे में उसने युवती के घर के आसपास चक्कर लगाने शुरू कर दिए। वह किसी पेड़ या झाड़ी की ओंट से युवती को देखता रहता। दशहरा निपट गया था और बच्चे दीपावाली का इंतजार कर रहे थे। कभी कभार आतिशबाजी भी करते। एक दिन युवती छोटे भाई ने राकेट छोड़ा। यह राकेट घर के निकट झाड़ी की ओंट में छिपे मोहब्बत की आंख में जा लगा। मोहब्बत के परिजनों ने उसे एक नर्सिंग होम में भर्ती कराया। जितने दिन वह अस्पताल में रहा, उतने दिन युवती स्कूल से घर जाते समय उसे देखने जरूर जाती। साथ ही घर से उसे खाना बनाकर भी ले जाती। दोनों का प्यार पींगे मार रहा था। मोहब्बत को अस्पताल से छुट्टी मिली, लेकिन उसकी एक आंख डॉक्टर भी नहीं बचा पाए।
मोहब्बत अक्सर युवती के घर उस समय ही मिलने जाता, जब उसका बड़ा भाई यानी मेरा मित्र और उसके पिता घर पर नहीं होते। मुझे जब दोनों के बीच प्रेम प्रसंग की बात पता चली तो मैं संकट में पड़ गया कि इसे मित्र को बताऊं या ना बताऊं। फिर मैने मित्र को बताने का निश्चय किया। मैने मित्र को उतना ही बताया, जितना मुझे पता था। अपनी बहन के बारे में मुझसे सुनने के बाद मित्र मेरे से भी चिढ़ गया। उसने मुझसे मिलना जुलना बंद कर दिया। एक दिन मित्र को अपने घर मोहब्बत नजर आया। उसने उसे डांट कर भगा दिया। तभी उसे मेरी बातों पर विश्वास हुआ। उसने अपनी बहन को डांटा, डराया, धमकाया, लेकिन उस पर कोई असर नहीं पड़ा। वह एक दिन अपने कपड़े लेकर घर से भाग गई। हुआ वही, जो अमूमन ऐसे मामलों में होता है। पुलिस में रिपोर्ट कराई गई। मोहब्बत गिरफ्तार हो गया। अदालत में जब बयान का समय आया तो युवती भाई व पिता की ओर से रटाए गए सारे डायलॉग भूल गई। वह मोहब्बत से चिपटकर रोने लगी। उसने यहां तक कह दिया कि जब वह बालिग हो जाएगी, मोहब्त से ही शादी करेगी।
इस प्रेम कहानी का अंत सुखद व दुखद दोनों ही रहे। युवती के भाई व पिता को कुछ लोगों ने समझाया तो वे मान गए। मोहब्बत से उसका विवाह रचा दिया गया। विवाह के पश्चात युवती को कुछ दिनों तक तो ससुराल वालों ने खुश रखा, फिर उस पर अत्याचार होने लगे। मोहब्बत भी हमेशा शराब में डूबा रहता। छोटी उम्र में विवाह। फिर चार बच्चों की मां। इस पर युवती के चेहरे में जल्द ही झुर्रियां पड़ गई। एक दिन वह बाजार में मुझे मिली तो पहले मैं उसे पहचान नहीं सका। उसने ही पहचाना और पैर छुए, फिर परिचय दिया। फिर पुरानी याद आते ही मेरी आंखों के आगे रामलीला के दृश्य नाचने लगे। उसकी हालत देखकर मैं यह भी पूछने का भी साहस तक नहीं कर सका कि कैसी हो। …….
भानु बंगवाल

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