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आत्मविश्वास…..

Anubhav
Anubhav
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जरूरत से ज्यादा आत्मविश्वास भी कभी धोखा दे जाता है। कई बार तैराक ही भंवर में फंसकर बहने लगता है। ऐसे में आत्मविश्वास के साथ ही समझदारी से काम लेना ही बेहतर होता है। किसी काम को करने से पहले ही उसके पूरे होने में कई किस्म की शंका पालना ही कमजोर आत्मविश्वास की निशानी होती है। पहले काम तो शुरू किया जाए। उसे करने के दौरान जो परेशानी हो, उसे दूर करने के लिए उसका विकल्प तलाशना चाहिए। फिर काम आसान होता चला जाएगा और उसे करने में भी मजा आएगा। यही तो है आत्मविश्वास। यह एक दिन में नहीं आता। निरंतर मेहनत करने व कर्म करने से ही व्यक्ति का आत्मविश्वास मजबूत होने लगता है।
चाहे घर में किसी की शादी हो या फिर कोई और आयोजन। इसे पूरा करने के लिए व्यक्ति योजना बनाता है। यानी समुचित प्रबंधन करना है। योजना का खाका खींचता है। फिर उस खाके के मुताबिक काम करता है। लगभग हमारी परिकल्पना के मुताबिक ही काम होता चला जाता है। कभी कभार बीच में परेशानी भी खड़ी होती है। इस परेशानी का हम तोड़ भी तलाश लेते हैं। ऐसी रणनीति ही हमारे आत्मविश्वास का नतीजा होती है।
वैसे तो आत्मविश्वास एक दिन या फिर किसी एक घटना से मजबूत नहीं होता। व्यक्ति को छोटे से ही इसका अभ्यास होता चला जाता है। एक परिवार को ही लो। लोग बच्चों को बच्चा ही समझते हैं। बच्चे भी माता-पिता पर निर्भर हो जाते हैं। स्कूल से घर जाना हो या फिर घर के लिए छोटा-मोटा सामान दुकान से लाना हो। बच्चों पर माता-पिता का विश्वास नहीं होता। ऐसे में उनका आत्मविश्वास भी कैसे जागृत होगा। होना यह चाहिए कि जब बच्चा दो और दो चार जोड़ना सीख रहा हो तो उससे हल्की-फुल्की खरीददारी करानी चाहिए। ताकी वह भी दुकान से घर का सामान ला सके। हिसाब-किताब जोड़ सके। बच्चा समझकर दुकानदार उसे फटे नोट न पकड़ा दे। ऐसी छोटी-छोटी चीजों का उसे ज्ञान होना चाहिए। ऐसा ज्ञान उसे तब ही आएगा, जब उसे हम जिम्मेदारी सौंपेंगे उस पर विश्वास करेंगे। जब मेरा बड़ा बेटा चौथी क्लास में पढ़ता था और छोटा केजी में। उस समय मैने बेटों को जूड़ो सीखने भेजा। घर से करीब तीन किलोमीटर की दूरी पर स्थित जूड़ो हाल में उन्हें कभी मैं छोड़ता और कभी मेरी पत्नी। उनसे बड़े बच्चों को भी उनके अभिभावक ही जूड़ो हाल तक छोड़ा करते थे। एक दिन जूड़ो कोच ने मुझसे कहा कि बच्चों को कहो कि खुद ही टेंपो पकड़कर यहां तक पहुंचे। पहले मैं हिचकिचाया कि अभी वे छोटे हैं। फिर मैने बच्चों को टेंपो मैं बैठाना शुरू किया। कुछ ही दिन में दोनों घर से खुद ही निकलने लगे और जूड़ो के प्रशिक्षण के बाद घर आने लगे। घर के छोटे-बड़े काम में दोनों का सहयोग लिया जाने लगा। यह सहयोग आज भी जारी है, जबकि बड़े बेटे ने नवीं व छोटे ने पांचवी की परीक्षा हाल ही में दी।
परीक्षा समाप्त होने के बाद कुछ दिन दोनों घर में धमाचोकड़ी मचाते रहे। कंप्यूटर गेम्स, टेलीविजन कितना बहला सकते हैं। दोनों घर में परेशान होने लगे। न मुझे समय कि मैं कहीं ले जाऊं और न ही पत्नी को। एक दिन पहले ही बच्चों की नानी का फोन आया कि सहारनपुर आ जाओ। बड़े बेटे ने कहा कि अभी मम्मी के स्कूल में छुट्टी नहीं पड़ी है। जब पड़ेंगी तब आऊंगा। नानी का घर। मैने तो अपनी नानी या नाना दोनों ही नहीं देखे। दादी भी तब स्वर्ग सिधार गई थी, जब मैं करीब पांच साल का था। इसके बावजूद मैने अपनी मां को नाती व पोतों के साथ प्यार जताते हुए देखता हूं। मेरी भांजी, भांजा, भतीजी, भतीजा या फिर मेरे बेटे सभी उसे प्यार करते हैं। वह भी बच्चों को कहानी सुनाती है। ऐसे में बच्चों का भी मन बहलता है और मेरी माताजी का भी। ऐसे में मैं भी अपने बच्चों को उनकी नानी से क्यों दूर रखूं। मैने बड़े बेटे से कहा कि अब तुम पंद्रह के होने वाले हो। खुद ही नानी के घर चले जाओ। छोटे को भी साथ ले जाओ। कल रात ही बच्चों ने पैकिंग कर दी। साथ ही यह भी कहा कि नानी को सरपराइज देना है, उन्हें मत बताना कि हम आ रहे हैं।
कल रात ही कपड़ों की पैकिंग हो गई। जिस स्कूल बैग में पहले किताबें होती थी, वह कपड़ों से ठसाठस भर गया। सुबह मैने दोनों बच्चों को सहारनपुर की बस में बैठा दिया। बड़े को पता था कि कहां उतरना है। फिर भी उसे मोबाइल थमा दिया और बताया कि कुछ-कुछ देर में संपर्क करके यह बताते रहना कि कहां पहुंच गए।
करीब ढाई घंटे बीते, लेकिन बेटे का फोन नहीं आया। मैं परेशान होकर उसे फोन मिलता रहा कि कहीं कोई अनहोनी तो नहीं हो गई। कहां तक पहुंचे होंगे। कहीं बस खराब तो नहीं हो गई। उसका फोन लग नहीं रहा था। मेरी परेशानी बढ़ती जा रही थी। काफी देर बाद बेटे का फोन आया और उसने बताया कि उसने जानबूझकर फोन नहीं किया था। उसे खुद पर आत्मविश्वास था। वह नानी के घर सकुशल पहुंच गया है। यहां उन्हें देखकर सभी खुश हैं और घर में मेले या किसी त्योहार जैसा माहौल है।
भानु बंगवाल

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