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बरात, दुल्हा और सजा

Anubhav
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IMG_20130506_172359_0दोपहर कड़ी धूप में मैं देहरादून की सड़क से गुजर रहा था तो आगे सड़क पर कुछ जाम नजर आया। कारण यह था कि आगे बारात चल रही थी। बारात की साइड से ही वाहन गुजर रहे थे। मई की दोपहर में सूरज सिर के ऊपर खड़ा था। ऐसे में बारात में बैंड तो बज रहा था, लेकिन बराती नाचने की भी हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। शायद वे अपनी एनर्जी तब के लिए बचा कर चल रहे थे, जब बरात दुल्हन के द्वार पहुंचेगी। दुल्हे ने इस गरमी में सूट कोट पहना था। वो भी काले रंग का। इसे देखते ही मेरे शरीर में झुरझुरी सी दौड़ने लगी साथ ही मुझे मई का वो महिना भी याद आ गया जब मेरी भी शादी हुई थी। तब भी ऐसी ही गरमी थी। माथे से पसीना टपक रहा था। हां इतना जरूर है कि मेरी शादी रात की थी, एसे में बरात के दौरान गरमी में दुल्हा बनकर मुझे कुछ कम सजा भुगतनी पड़ी। पर वहां एक सजा ऐसी थी, जो मैं कभी नहीं भूल पाउंगा।
वैसे तो हर शादी में आकर्षण का केंद्र दुल्ला व दुल्हन ही होते हैं। सभी लोगों की नजर उन पर ही होती है। इसीलिए दुल्हा भी ऐसी ड्रेस पहनता है, जैसे कोई जादूगर अपने करतब दिखाने मंच पर उतरा हो। वहीं दुल्हन को सजा संवारकर राजकुमारी या परी का रूप दिया जाता है। काम चलाऊ वेतन में मैने शादी के बारे में विचार तक नहीं किया था। देहरादून से दो साल ऋषिकेश तबादला होने के बाद मेरा तबादला सहारनपुर हो गया था। इतना वेतन मिलता था कि मैं अपना पेट आसानी से तो भर लूं, लेकिन घर बीबी लाकर उसके साथ गृहस्थी चलाने की हिम्मत मुझमें नहीं थी। मुझसे बड़ी सभी बहनों व भाई की शादी हो चुकी थी। मैं परिवार में सबसे छोटा था। पिताजी लड़की बताते, लेकिन मैं अपना मामूली वेतन देखकर शादी के नाम से डर जाता। कहते हैं कि यहां संयोग होगा, वही रिश्ता भी बन जाता है। ऐसे ही मुझे सहारनपुर में एक लड़की की मां ने पसंद किया और मुझसे पूछा कि क्या मेरा रिश्ता उनके परिवार से हो सकता है। वैसे मैं विचारों से जाति-पाति को नहीं मानता, लेकिन व्यवहार में इसे उतारना कठिन होता है। मैं उत्तराखंडी ब्राह्मण था और लड़की के परिजन मैदानी क्षेत्र के ब्राह्मण। हमारे व उनमें फर्क सिर्फ बोली का था, जबकि कर्मकांड लगभग एक से थे। शादी के नाम से मैं डर गया। मैने कुछ दिन विचार किया। मुझे लड़की की मां ने पसंद किया था, लेकिन मैने लड़की से कभी बात तक नहीं की थी। ऐसे में कई तरह की दुविधा मेरे मन में थी। फिर भी मै जब माता-पिता से मिलने देहरादून आया तो मैने पिताजी से इस बारे में चर्चा की। उन्होंने यही कहा कि यदि तूझे ठीक लगता है, तो हमें क्या ऐतराज। मैने लड़की से बात की, वो ठीक लगी। फिर उसके माता-पिता को देहरादून आकर मेरे माता-पिता से मिलने के लिए कहा। मैं जल्दबाजी में शादी के पक्ष में नहीं थी। कारण कि मेरे पास शादी के नाम पर खर्च करने के लिए फूटी कौड़ी तक नहीं थी और मैं दहेज के भी सख्त खिलाफ था। पिताजी ने सरकारी नौकरी से सेवानिवृत होने के बाद मकान बना लिया था। मुझसे बड़ी बहन की शादी के बाद वे भी खाली थे और पेंशन पर निर्भर थे।
खैर जैसे-तैसे रिश्ता पक्का हुआ। यह वर्ष 1997 की बात है। शगून के तौर पर मुझे एक रुपये का टीका लगाया गया। मैने कहा कि मैं न तो बारात में भीड़ ही लाउंगा और न ही बैंड-बाजा बजाउंगा। मेरठ में अपने बॉस से संपर्क कर दस हजार रुपये का कर्ज लिया। उस राशि से मैने लड़की के लिए कुछ कपड़े लिए और कुछ अपने लिए। कुछ आभूषण मैने नगद व कुछ उदार लिए। इस खदीददारी में मेरी बड़ी बहन ने मदद की। मेरे पास बरात ले जाने का बजट तक नहीं था।
मैने कार्ड के नाम पर निमंत्रण पत्र कंप्यूटर से टाइप कर उसकी फोटोस्टेट प्रतियां निकाली। देहरादून के कुछ मित्र बारात के लिए अड़े रहे। उन्होंने ही बाराती ले जाने के लिए बस की व्यवस्था तक कर दी। वहीं, सहारनपुर में एक मित्र ने कहा कि मैं तो बारात में नाचूंगा और उसने ही अपनी अंटी से पैसे निकालकर बैंड व घोड़ी तक मंगवा ली। मैं तो साधारण विवाह करना चाह रहा था। जिसमें घर परिवार के कुछ लोग ही सहारनपुर जाएं और विवाह रस्म पूरी कराएं। मई का महिना और ऊपर से 27 तारिख। नियत समय पर हम सहारनपुर पहुंच गए। वहां देखा कि बैंड-बाजा भी है और घोड़ी भी।
गरमी में मैने भी सिल्वर ग्रे कलर का सूट पहना था। इतना पसीना टपक रहा था कि ऊपर से टपकते हुए भीतर ही भीतर मेरे जूतों में भर रहा था। खैर जब बरात चली तो मेरे छोटे दो भांजे मेरे साथ घोड़ी में बैठने की जिद करने लगे। उन्हें समझाया गया कि कुछ दूर तक एक बैठेगा और फिर दूसरा। बरात चली, लेकिन तभी मेरी मुसीबत भी शुरू हो गई। देहरादून में बरात जब चलती है तो सबसे आगे बैंड की ठेली होती है। उसके बाद बराती और पीछे घोड़ी में दुल्हा। यहां उल्टा सिस्टम था। पहले बराती व बैंड वाले। उसके बाद घोड़ी में दुल्हा और दुल्हे के ठीक पीछे लाउडस्पीकर की ठेली। ऐसे में मेरे ठीक पीछे ठेली होने से लाउडस्पीकर की आवाज सीधे मेरे कानों को घायल कर रही थी। कुछ ही देर में मेरे भांजे का सब्र जवाब दे गया। वह घोड़ी से उतर गया। उसके बाद दूसरा बैठा, लेकिन लाउडस्पीकर की आवाज ने उसे भी डरा दिया। वह भी मैदान छोड़ नीचे उतर गया। फिर मैदान में मैं अकेला ही मजबूरीवश डटा रहा। करता क्या घोड़ी से उतरकर चल नहीं सकता था। पहले से पता होता तो कानों में रुईं ठूस लेता। मुझे बरात का आधा किलोमीटर का सफर भी पांच किलोमीटर जैसा लंबा लग रहा था। मेरे कान में सीटी बजने लगी। मैं अपने दोस्तों को कोस रहा था कि उन्होंने बैंड की व्यवस्था क्यों की। मुझे लग रहा था कि या तो मैं बहरा हो जाऊंगा या फिर गश खाकर नीचे गिर जाऊंगा। खैर जब बरात गनतव्य तक पहुंची और मैं घोड़ी से उतर गया, तभी मेरी यह मुसीबत कुछ कम हुई। आज भी जब मैं किसी की बरात देखता हूं तो मुझे बैंड के गानों की धुन के साथ वही चिरपरिचित सीटी सुनाई देती है। जिसे सुनकर मैं अपनी शादी में मेरा ही बैंड बजने लगा था और ये सीटी की आवाज मेरा पीछा नहीं छोड़ती है।
भानु बंगवाल

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