Menu
blogid : 9484 postid : 278

हम चलेंगे साथ-साथ…..

Anubhav
Anubhav
  • 207 Posts
  • 745 Comments

हर माता-पिता का सपना। अक्सर सपना यही होता है कि उनकी औलाद की सही परवरिश हो। बच्चे पढ़-लिखकर काबिल बने। बेटा हो तो अच्छी नौकरी लगे या फिर बिजनेस करे। बेटी हो तो उसके लिए अच्छा सा वर तलाश किया जाए और शादी कर दी जाए। यदि होनहार है तो बेटी की पहले नौकरी लगे व अपने पांव पर खड़ी हो, फिर उसकी शादी कर दी जाए। सपना आगे बढ़ता है और माता-पिता यही देखते हैं कि वे नाती व पौते वाले हो गए। बेटे की औलाद है तो वे दादा-दादी के कंधों पर हर रोज झूल रही है। बेटी जब भी मायके आएगी तो उसके बच्चे नाना व नानी के पास ही रहेंगे। नानी या दादी, पौते-पौती या नाति व नातिन को हर रोज करानी सुनाएगी। हर सुबह लाड व प्यार से गुजरेगी और हर शाम हंसी खुशी मे बीतेगी। ये तो है एक सपना। हकीकत कुछ अलग है। अलग हमने ही की। हकीकत यह है कि पहले बेटा नौकरी या पढ़ाई के लिए बाहर गया। कहा कि पैर जम जाएंगे तो माता-पिता को भी साथ बुला लूंगा। पढ़ाई पूरी हुई, नौकरी भी लगी। शादी भी हुई और बच्चे भी। मां की याद तब आती है, जब बच्चे छोटे होते हैं। आया के हाथ उन्हें सभालने में डर लगता है। तब मां को बुला लिया जाता है। जब बच्चा थोड़ा समझदार होता है, तो मां का कर्तव्य पूरा हो जाता है। वह भी वापस अपने घर या फिर उस दुनियां में वापस लौट जाती है, जहां उसका पति है और कोई नहीं।
आज कुछ इसी तरह की कहानी घर-घर की कहानी बनती जा रही है। परिवार बिखर रहे हैं। जिस बुढ़ापे में माता-पिता को औलाद के सहारे की छड़ी चाहिए थी, उनका वही बुढ़ापा अकेले में कट रहा है। तभी तो विदेशो में भी संयुक्त परिवार का महत्व समझा जाने लगा और 15 मई को विश्व परिवार दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। विदेशों में तो मां-बाप को या फिर बच्चों को एक दूसरे के लिए समय देने के लिए सप्ताह व महीने तक बीत जाते हैं। ऐसे में उनके लिए तो दिन विशेष के मायने हो सकते हैं, लेकिन भारत में क्यों परिवार टूट रहे हैं। क्यों अब व्यक्ति को अकेलापन ही ज्यादा ठीक लगने लगा है। क्यों बच्चे, चाची, ताई, दादी, दादा आदि के साथ नहीं रहते हैं। क्यों बेटा नौकरी के लिए मां-बाप का घर छोड़कर जब निकलता है, तो वापस नहीं आता है। जिस शहर में जाता है, वहीं का होकर रह जाता है। क्यों माता-पिता भी बेटे के बुलाने पर भी वहां रहना पसंद नहीं करते हैं। इस सभी के कारणों पर जाएंगे, तो लंबी बहस छिड़ सकती है। इस बहस का नतीजा भी यही निकलेगा कि मजबूरी में ही बेटा अलग हुआ। सास अपनी बहू के साथ समन्वय नहीं बैठा पाई, वहीं बहू की भी सास से नहीं बनती। फिर परिवार में खाई न बढ़ जाए, ऐसे में चूल्हे अलग करना ही उचित था।
वैसे तो यह प्रकृति का नियम है कि जब भी कोई चीज बढ़ती है तो वह चारों ओर फैलती है। पेड़ बढ़ता है तो उससे फल फूल और बीज निकलते हैं। नई पौध बनती है। यह पौध भी जगह-जगह फैलती है। इसी तरह परिवार भी बढ़ता है तो वह भी चारों दिशाओं में फैलता है। बच्चे घर से बाहर निकलते हैं और दूर-दूर जा कर बसते हैं। यही उचित भी है। हां इतना जरूर है कि चाहे औलाद माता-पिता के साथ रहे या फिर कहीं अन्यत्र। यदि दुख व सुख की हर घड़ी में वह माता पिता के साथ खड़ी है तो इसे भी संयुक्त परिवार कहा जा सकता है। पर इसके विपरीत मैने ऐसे लोग भी देखे, जो दूर तबादला होने के बाद वापस अपने घर तबादला इस आधार पर कराते हैं कि घर में माता-पिता अकेले हैं। उनकी कौन सेवा करेगा। इस आधार पर कई के तबादले हुए भी। कई ऐसे भी निकले, जिन्होंने तबादला माता-पिता के नाम से कराया, लेकिन वापस आने पर माता-पिता के साथ नहीं रहे। उन्हें घर छोटा लगा और नए मकान में रहने लगे। वहीं इसके विपरीत कई की औलाद के नाम पर एकमात्र बेटी ही रही। बेटी ने माता-पिता की आखरी छणों में ऐसे सेवा की, जो बेटा भी नहीं कर पाता है।
गरीबी, बेरोजगारी, भूखमरी, अच्छा करियर आदि जो कुछ भी बहाने हों, ये सब संयुक्त परिवार को तोड़ने के मुख्य कारण हैं। फिर भी मैं पहाड़ों में देखता हूं कि आज भी जहां संयुक्त परिवार है, वहां परेशानी कम ही हैं। पगडंडी वाले सर्पीले रास्तों में बेटा कंधे पर माता या पिता को उठाकर अस्पताल ले जाता है। दुखः व सुख की हर घड़ी में पूरा परिवार साथ रहता है। मजबूरी हो या फिर किसी कारणवश यदि परिवार के सदस्य अलग-अलग स्थानों पर रहते हैं और उनमें आपस में कोई कटुता नहीं है, तो इसे संयुक्त परिवार ही कहने में कोई बुराई नहीं। फिर भी यदि एक घर ऐसा हो, जहां माता-पिता अपनी औलाद व उनके बच्चों के साथ रहते हों, तो इसमें सभी को एक दूसरे से सहारा मिलता है। मेरे पिता नहीं हैं, लेकिन मेरी माता, भाई व मेरा परिवार एक ही छत के नीचे रहता है। कभी हम भी बिखर गए थे। नौकरी के चलते दोनों भाई देहरादून से बाहर रहे। फिर कुछ साल से दोनों की वापसी हुई और आज एक साथ हैं। भले ही हमारा परिवार छोटा है, लेकिन इस संयुक्त परिवार में माताजी के आर्शीवाद की छत्रछाया है। इससे हम अपने को खुश किस्मत समझते हैं। इससे आगे मैं यहीं कहूंगा कि हम चलेंगे साथ-साथ।
भानु बंगवाल

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply