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कुछ सुखद, कुछ दुखद (बदरी, केदारनाथ पर विशेष)

Anubhav
Anubhav
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कोई भी सफर या यात्रा करो। उसके दो तरह के अनुभव मिलते हैं। ये अनुभव कुछ सुखद होते हैं, तो कुछ इतने कष्टकारी होते हैं कि व्यक्ति कान पकड़ लेता है कि दोबारा वह ऐसी यात्रा नहीं करेगा। फिर भी जीवन तो चलने का नाम है। हर कष्ट को सहन कर, हर बाधाओं को पार करके ही मनुष्य को जीवन में सच्चे सुख का अनुभव होता है। ऐसा ही अनुभव मुझे मिला केदारनाथ व बदरीनाथ की यात्रा का। पांच दिन की इस यात्रा के दौरान मुझे कभी ज्यादा मजा आया तो कभी अपनी किस्मत को भी कोसने लगा कि मैं यहां क्यों आया। घर से बच्चों के साथ मैं देहरादून से गौरीकुंड के लिए रवाना हुआ। इस रास्ते में मुझे कोई दिक्कत नहीं आई। हां इतना जरूर है किजो गणित गौरीकुंड पहुंचने का लगाया उसमें अनुमान के मुताबिक कुछ ही फर्क निकला। यानी दो घंटे ही मैं लेट हुआ। गौरीकुंड पहुंचकर बच्चों को तब आश्चर्य हुआ जब खानपान की हर वस्तु की कीमत दो से तीन गुनी थी। इसके लिए मैं पहले से तैयार था। बच्चों को जो पसंद था वह देहरादून से ही खरीद लिया गया था। ताकी बाहर ज्यादा सामान न लेना पड़े। मैने बच्चों को समझाया कि इस दुर्गम स्थान पर ढुलाई ज्यादा पड़ती है। साथ ही यहां के व्यापारी मात्र दो से तीन माह तक ही व्यापार करते हैं। केदारनाथ मंदिर के कपाट बंद होने के बाद उनका धंधा भी चौपट हो जाता है। ऐसे में यदि वे थोड़ा महंगा भी बेच रहे हैं तो कोई बात नहीं।
एक रात गौरीकुंड में छोटे से सुंदर से लॉज में बिताने के बाद अगली सुबह यानी दूसरे दिन हम नहा-धोकर केदारनाथ धाम की पैदल चढाई पर थे। 14 किलोमीटर की इस खड़ी चढ़ाई में मैं और मेरी पत्नी, दो बेटे (एक दस साल व एक पंद्रह साल) पैदल ही चल दिए। सामान के नाम पर हमने एक बैग में सभी की बरसाती, बनियान, खानपान का सामान आदि ही पैक किए। दो तीन किलोमीटर के बाद यही बैग हमें ऐसा लगने लगा कि जैसे किसी पहाड़ को उठाकर चल रहे हैं। इस चढाई में सबसे ज्यादा परेशानी घोड़ा-खच्चर से लोगों को हो रही थी। वे एक निश्चित दिशा में नहीं चल रहे थे। उनसे बचने के लिए लोगों को परेशान होना पड़ रहा था। कई बार लोगों का घोड़ा संचालकों से विवाद भी हो जाता। करीब सात घंटे की मश्कत के बाद हम केदारनाथ धाम पहुंच गए। तब तक हम पैकेट के सामान कोल्ड ड्रिंक्स, चिप्स, बिस्कुट आदि सभी निपटा चुके थे। बैग का बोझ भी कम करना था। केदारनाथ धाम पहुंचने के बाद मैं सर्दी से कांपने लगा। खैर जैकेट साथ थी। कुछ आराम जरूर मिला। शाम को मंदिर से करीब आठ सौ मीटर की खड़ी चढाई पर हम भैरवनाथ मंदिर भी गए। वहां से होटल के कमरे में आ गए। फिर रात करीब आठ बजे मंदिर में जाकर आरती में शामिल हुए। रात को वहां इतनी सर्दी थी कि दो रजाई से ही काम चला। अगली सुबह तीसरे दिन साढ़े पांच बजे वापस गौरीकुंड की तरफ रवाना हो गए।
सुबह एक बात पर हम सभी आश्चर्यचकित थे कि रास्ते में ज्यादा घोड़े नहीं दिख रहे थे। ऐसे में हम सभी की चाल घोड़े के समान थी। क्योंकि घोड़ों के कारण हमें बच-बच कर चलना पड़ता। पता चला कि घोड़ों की हड़ताल है।कुछएक घोड़े वाले चोरी-छिपे ही यात्रियों को घोड़ों पर बिठाकर ले जा रहे थे। ऐसा ही हाल पालकी व कंडी वालों का था। यहीं से हमें सुखद व दुखद दोनों ही स्थिति का सामना करना पड़ा। चढ़ाई में जितना कष्ट था ढलान में भी उतना ही था। पैर जाम हो चुके थे। कदम उठते नहीं थे। धीरे-धीरे चाल धीमी पड़ने लगी। सूरज बादलों में छिपा था। फिर बारिश भी होने लगी। धीरे-धीरे बारिश पूरे शबाब पर थी। हमने बरसाती निकाल ली और चलते ही रहे। जैसे-जैसे समय बीता हड़ताली भी सक्रिय हो गए। लाल झंडे वालों ने हेलीकाप्टर सेवा के खिलाफ हड़ताल करखी थी। जो थोड़े बहुत घोड़े, पालकी व कंडी पर यात्री चल रहे थे, हड़तालियों ने उन्हें रोककर सवारी उतारनी शुरू कर दी। ऐसे में की वे यात्री परेशान हो गए, जो चलने में समर्थ नहीं थे। उनका हड़तालियों से विवाद भी हुआ। कंडी से उतरने के बाद बच्चे रोने लगे। उनकी सुनने वाला कोई नही था।
ढलान उतरने वाले तो पैदल चलकर यहां के लोगों को कोस रहे थे, वहीं पैदल चलने वाले खुश थे। केदारनाथ की चढ़ाई चढ़ने वाले तो कई बगैर घोड़ा व अन्य संसाधनों के वापस गौरीकुंड को रवाना हो गए। सुबह 11 बजे गौरीकुंड पहुंचकर मुझे चोपता,गोपेश्वर होते हुए बदरीनाथ को रवाना होना था। इसके लिए मैने टैक्सी मंगाई थी। पता चला कि लगातार हो रही बारिश के कारण टैक्सी भी गौरीकुंड नहीं पहुंच पाई। करीब सात-आठ किलोमीटर पहले सीतापुर के पास भूस्खलन होने पर टैक्सी वहीं फंसी पड़ी है। एक-एक घंटे इंतजार करते-करते शाम के पांच बज गए और टैक्सी हमसे करीब पांच किलोमीटर दूर सोनप्रयाग तक ही पहुंच सकी। सोनप्रयाग में करीब चार हजार से ज्यादा वाहन थे। वहां से एक बार में सौ वाहन गौरीकुंड की तरफ भेजे जा रहे थे। जब इतने ही वाहन वापस लौटते तभी आगे फिर सौ वाहन को भेजा जाता। ऐसे मौके का फायदा उठाकर कुछ वाहन सोनप्रयाग में बैरियर से पहले तक की सवारी ढो रहे थे। फिर वहां से गौरीकुंड की सवारी। मैं भी परिवार के साथ के साथ सोनप्रयाग तक पहुंचा। मोबाईल ऐसे स्थानों पर खिलौना साबित हो रहे थे। कभी-कभार बीएसएनएल का नेटवर्क ही मिल पाता था। सोनप्रयाग से आगे चलने में लंबे जाम मिले। एक घंटे का रास्ता दो घंटे में तय हो रहा था। कई स्थानों पर तो आधे-आधे घंटे रुकना पड़ रहा था। ऐसे में कहीं रुककर खाना खाने का भी समय तक नहीं मिला। नंदप्रयाग से आगे कुंड नामक स्थान पर तो पुल पर ही करीब एक घंटे के जाम में हम फंसे रहे।
इस जाम के बाद रात करीब साढ़े नौ बजे हम चोपता के रास्ते पर थे। बच्चे व पत्नी सो रहे थे, मैं और ड्राइवर दोनों ही जाग रहे थे।
बड़े-बड़े गड्ढों वाली सर्पीली सड़क, कहीं कीचड़ भरा हुआ तो कभीं पानी। ऐसे में वाहन में भी काफी डर लग रहाथा। रात का समय था। सामने सड़क किनारे एक छाया सी दिखी। वाहन की गति हल्की कर गौर से देखा तो पाया कि सड़क किनारे गाय मरी पड़ी है। उसे एक बडा सा गुलदार खा रहा था। गाड़ी की रोशनी पड़ने पर वह दूसरी तरफ खाई की ओर चल दिया। उसे देखने को हमने गाड़ी धीरे-धीरे बैक की। बच्चों को जगाने का प्रयास किया, पर वे गहरी नींद में थे। पत्नी ये नजारा देख डर गई। वह आगे बढ़ने की जिद करने लगी। गुलदार आगे शाही चाल से रैलिंग के साथ-साथ चल रहा था। हम उलटी गाड़ी ढलान पर उसके पीछे सरका रहे थे। वह पलटा और गुर्राते हुए हमें डराने लगा। फिर खाई की तरफ छलांग लगाते हुए छिप गया। ये अनुभव कुछ रोमांचकारी था।
रास्ते में कहीं कोई चेकिंग नहीं थी। चोपता में एक जगह जहां होटल थे, वहीं पुलिस ने बैरियर लगाया हुआ था। शायद ये याद दिलाने के लिए कि रात को पहाड़ में वाहन चलाना प्रतिबंधित है। करीब सात गाड़ियां वहां फंस गई। रात के 12 बजे थे। हो सकता है कि पुलिस कर्मी उस होटलवाले के लिए ही यह काम कर रहे थे, जिसके समीप बैरियर था। लोगों का अनुरोध उनके आगे फीका पड़ रहा था। खैर किसी तरह सिफारिश का फायदा उठाकर बैरियर का डंडा उठवाया। गौरीकुंड से गोपेश्वर तक के जिस रास्ते को सुबह 11 बजे से पार करने में हमें अपराह्न के दो या तीन बजने थे वह जगह-जगह भूस्खलन के कारण रात दो बजे तय हो सका। गोपेश्वर में रात्रि विश्राम के बाद चौथे दिन हम सुबह गोपीनाथ मंदिर में गए और बदरीनाथ को रवाना हो गए। आगे का सफर करीब ठीक था। कुछएक स्थान पर हल्का जाम मिला। अपराह्न करीब साढ़े तीन बजे हम बदरीनाथ में पहले उस स्थान पर पहुंचे जहां हमे ठहरना था। एक इग्लूनुमा कॉटेज में सामान रखकर हम भारत-चीन सीमा के आखरी गांव माणा गए। वहीं मुझे एक देहरादून का मित्र भी मिल गया जो करीब एक सप्ताह से बदरीनाथ आया हुआ था। माणा में एक बात जरूर अच्छी लगी कि वहां के लोग अब स्थानीय उत्पादों का महत्व समझने लगे हैं। हाथ से तैयार भेड़ की ऊन के वस्त्र वे बेच रहे थे। साथ ही दुर्लभ जड़ी-बूटी, तुलसी की चायपत्ती आदि भी वे सस्ती दर पर लोगों को बेच रहे थे। पहले बाहर के व्यापारी उन्हें ठग लेते थे। अब वे खुद व्यापारी बन गए।
रात साढ़े सात बजे मंदिर में प्रवेश कर भगवान बदरीविशाल के दर्शन के बाद हम कॉटेज में चले गए। फिर भोजन के बाद बिस्तर पर लेटे तो गहरी नींद भी आई। पांचवे दिन सुबह चार बजे उठने के बाद हर्बल चाय का आनंद लिया और स्नान करने के बाद मैं ब्रह्मकपाल पहुंचा और पित्रों का पिंडदान किया। इसी दौरान बेटे गर्मकुंड में स्थान का आनंद लेते रहे। फिर सुबह दोबारा दर्शन कर हम वापस आठ बजे देहरादून को रवाना हुए। इस दिन दो दिन की बारिश से पहाड़ की सड़कें छलनी हो गई। जगह-जगह भूस्खलन से रास्ते बंद थे। ऐसे में कई स्थान पर रास्ता साफ होने का इंतजार भी करना पड़ा। शाम सात बजे तक जहां देहरादून पहुंच जाना था, वहीं मैं रात साढ़े दस बजे घर पहुंचा। फिर भी यात्रा में सुख व दुख दोनों का जो अनुभव रहा, वह काफी रोमांचकारी रहा।
भानु बंगवाल

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