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सब छपा है, सब छपा है, आज इन अखबार में। मैं छपा हूं, तू छपा है, ये छपा है, वो छपा है, देखना है कितना सच छपा है। ये पंक्तियां मैने एक नाटक के प्रदर्शन के दौरान सुनी थी। शायद संस्था युगमंच नैनीताल थी और करीब वर्ष नब्बे या 91 की बात रही होगी। इस संस्था ने जनवरी माह में देहरादून में दृष्टि नाट्य संस्था के सहयोग से नाटकों के प्रदर्शन किए थे। तब मेरा भी वास्ता पत्रकारिता से नया नया ही था। तब मैं भी पत्रकारिता को एक मिशन मानकर चलता था। क्योंकि उस दौरान पत्रकारों को एक-एक समाचार के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती थी। समाचार सूत्र जो थे, उनसे व्यक्तिगत संपर्क करने पड़ते थे। मोबाइल तब होते नहीं थे। पैदल, साइकिल या फिर स्कूटर से ही कहीं आना-जाना होता था। जिसे मैं मिशन मानकर चल रहा था, मुझे क्या पता था कि यह तो व्यक्ति की रोटी रोटी चलाने का ही धंधा है। पहले पेट पूजा फिर बाद में मिशन। फिर भी समुचित संसाधान न होने के बावजूद एक पत्रकार हर समाचार की पूरी छानबीन करता और तब ही वह पत्र में प्रकाशित होती। आज तो ट्रेंड ही बदल गया। पत्रकारिता ग्लेमर बनती जा रही है और इसे नाम व पैसा कमाने का आसान धंधा समझा जाने लगा। बाहरी दुनियां से यह जितना आसान दिखता है, उतना होता नहीं। सच्चाई कुछ और बयां करती है।
वैसे तो अमूमन लोगों की पत्रकारिता की शुरूआत क्राइम रिपोर्टिंग से होती है। इसके लिए जिला अस्पताल, पुलिस कंट्रोल रूम, एसएसपी कार्यालय, पोस्टमार्टम हाउस समेत पुलिस थानों के कई चक्कर लगाने पड़ते हैं। घटना की सूचना पर मौके की तरफ दौड़ना पड़ता है। आज बदलते ट्रेंड व मोबाइल के जमाने में इसमें भी बदलाव आने लगा है। फील्ड रिपोर्टिंग के नाम पर अधिकारियों की गणेश परिक्रमा हो रही है। मौके पर जाने की बजाय मोबाइल से ही लोगों से वार्ता कर समाचार जुटाए जाने लगे। कई भाइयों ने तो अब कोर्ट रिपोर्टिंग तक भी छोड़ दी। वे सरकारी अधिवक्ताओं पर ही निर्भर हो गए हैं। इसी तरह अन्य फील्ड का हाल है। इसका परीणाम कई बार बासी समाचार के रूप में सामने आता है। कई बार रिपोर्टर तक जो समाचार पहुंचते हैं, वे एक पक्षीय होते हैं। वैसे तो देखा जाए तो समाचारों के मामले में मीडिया भी भेदभाव बरतने लगा है। उसे अब आम आदमी से कोई सरोकार तक नहीं रहा। ऐसे समाचार को ही तव्वजो दी जाने लगी, जो अपमार्केट हो। आजादी के बाद के काल में श्रमिकों की समस्याएं जहां समाचार पत्रों में प्रमुखता से रहती थी, वह अब हाशिए में चली गई। कोई व्यक्ति दुर्घटना में मारा गया तो सबसे पहले उसकी हेसियत देखी जाने लगी। यदि वह मजदूर का बेटा है तो शायद संक्षिप्त समाचार में ही उसे स्थान मिलता है। इसी तरह बलात्कार के समाचारों में भी वर्ग को ध्यान में रखकर समाचार परोसे जाने लगे। आम आदमी जिसकी हेसियत कुछ भी नहीं है, उसे तो कभी यह समझने की भूल नहीं करनी चाहिए कि समाचार पत्र उसकी आवाज बन सकते हैं। क्योंकि समाचार एक प्रोडक्ट बन गया है। यदि मजदूर की बात लिखेगा तो लिखी बात को मजदूर पढे़गा नहीं। ऐसे में क्यों समाचार पत्र मजदूर की बात को लिखे, यही विचारधारा समाज में पनप रही है, जो कि घातक है। मीडिया को तो चटपटी खबर चाहिए, जिसे मसाला लगाकर परोसा जाए। मुंबई में महिला पत्रकार से गैंगरेप… एक बड़ी खबर। गांव में मजदूर की बेटी से रेप…. एक छोटी खबर। यानी आम आदमी की अब कोई औकात नहीं है।
आज मैं इस ब्लॉग में ऐसी बात इसलिए लिख रहा हूं कि जहां कई साथी जल्दबाजी में ब्रेकिंग की होड़ में गलत सूचनाएं प्रकाशित कर रहे हैं। जल्दबाजी का उदाहरण जून माह में उत्तराखंड हई त्रास्दी के दौरान भी देखा गया। फेसबुक में हमेशा अपडेट सूचना देने वालों ने तो एक जिलाधिकारी के बीमार होने की सूचना को उनकी मौत की सूचना के रूप में दे दिया। वहीं कई इतने सुस्त हैं कि दूसरों पर निर्भर होकर समाचार लिख रहे हैं। ऐसे लोगों के समाचार जब पाठकों तक पहुंच रहे हैं, तो पाठक को पहले से ही सब पता रहता है। तब पाठक शायद यही गुनगुनाता है..हमको पहले से पता है जी। ऐसे में पाठकों को क्या नया बताना या पढ़ाना चाहते हैं। ये शायद समाचार लिखने वाले को भी नहीं पता होगा। तभी तो कई बार समाचार पढ़ते समय मैं यही गुनगुनाता हूं-सब, छपा है, सब छपा है,,,,,,,देखना है कि कितना सच छपा है।
भानु बंगवाल
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