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क्या फर्क पड़ता है….

Anubhav
Anubhav
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इंसान के जीवन में वर्तमान का जितना महत्व है, उतना ही उसके भूत व भविष्य का भी है। तभी तो भूतकाल से सबक लेकर व्यक्ति अपने वर्तमान को बेहतर बनाने का प्रयास करता है। साथ ही उज्ज्वल भविष्य का ताना-बाना बुनता है। इस साल अप्रैल माह में नजर डाली जाए तो लगेगा कि यह महीना तो बस वादों का है। क्योंकि देश भर में लोकसभा चुनाव चल रहे हैं। कई राज्यों में तो मतदान हो गया और कई में चुनाव की प्रक्रिया चल रही है। टेलीविजन के किसी भी न्यूज चैनल को ऑन करो तो नेताजी का दौरा, आरोप-प्रत्यारोप, छिछालेदारी, झूठ व फरेब सब कुछ सुनाई व दिखाई देगा। चुनाव के मौसम के साथ ही यह असर तो अप्रैल का भी है। अप्रैल यानी की सनकी महीना। इन दिनों बगीचों में फूल खिले होते हैं। आम व लीची के बगीचे फल से लकदक रहते है। कोयल की कूक सुनाई देने लगती है। मदमस्त माहौल चारों तरफ का नजर आता है। देहरादून में तो इस बार कमाल हो गया। होली के बाद से जहां लोगों के गर्म कपड़े उतर जाते थे, वहीं इस बार सर्दी जाने का नाम ही नहीं ले रही है। यदि दिन में गर्मी पड़ती है तो अगले दिन बारिश हो रही है। रात को तो शायद ही किसी ने रजाई को तिलांजलि दी हो। यानी सनकी महीने में मौसम भी सनकी हो गया है। नेताजी भी तो सनक में हैं। वोट मांगते हैं तो वादे व कसमों से भी नहीं चूकते हैं। टेलीवीजन में विज्ञापन देखकर अब जनता भी सनकी हो गई है। वह भी पलटकर कहने लगी कि- नो उल्लू बनाईंग। पिछले आश्वासन का क्या हुआ। ऐसे में नेताजी का असहज होना भी लाजमी है। हांलाकि जनता के पास ज्यादा विकल्प नहीं है। उसे उन्हीं चेहरों से एक को चुनना है, जो चुनाव मैदान में हैं। फिर भी मुकाबला रोचक है।

गांव में सड़क, बिजली, पानी पहुंचाने का नारे अब फीके पड़ने लगे हैं। कुछ नया नेताजी के पास नहीं है। फिर भी कई गांव ऐसे हैं जहां के लोगों ने आज तक सड़क न होने से मोटर तक नहीं देखी। बिजली का बल्ब कैसे चमकता है यह भी उन्हें नहीं पता। इस हाईटेक युग में ऐसी बातें की जाएं तो कुछ अटपटा लगता है। भूत वर्तमान व भविष्य से अपनी बात शुरू करने के बावजूद शायद मैं भी विषय से भटक गया। पुरानी बातों का महत्व याद करते करते नेताजी बीच में टपक गए। शायद यह भी सनकी महीने अप्रैल का ही असर है। बात हो रही थी कि विकास शहरों तक ही सीमित रहा। गांव में तो यह अभी कोसों दूर है। आफिसों में एसी लगे हैं। घर में पंखा चलाने से लोग इसलिए कतराते हैं कि बिजली का बिल ज्यादा आ जाएगा। वही लोग सर्दी लगने के बावजूद आफिस पहुंचते ही एसी का बटन ऑन कर देते हैं। फिर जब दूसरे साथियों को ठंड लगती है तो एसी बंद करने को लेकर माहौल गरमाने लगता है। कोई कहता है कि गर्मी है, तो दूसरे को सर्दी लगने से बखार चढ़ने लगता है। एक साहब बार-बार बटन ऑफ करते फिर कुछ देर बाद एसी खुद ही ऑन हो जाता। ऐसे में साहब को यह नहीं सूझ रहा था कि क्या करें।

मुझसे उनकी व्यथा देखी नहीं गई और मैने उन्हें एक कहानी सुनाई। यह कहानी मेरे दूर के एक चाचा ने सुनाई थी। करीब चालीस साल पहले उनकी दादी पहली बार गांव से शहर में आई। पहली बार वह बस में बैठी। रास्ते में इतनी डरी कि तबीयत खराब हो गई। रास्ते भर उल्टी की शिकायत रही। घर पहुंची तो एक पोते ने दादी को कैंपाकोला (कोल्ड ड्रिंक) की बोतल खोलकर दी और कहा कि इसे पिओ तबीयत ठीक हो जाएगी। तभी दूसरा नाती वहां आया और नमस्ते की जगह बोला-हेलो दादीजी। दादी ने समझा कि वह बोतल हिलाने को कहा रहा है। उसने भी वही किया। जोर-जोर से बोतल हिलाने लगी। सारी कोल्ड ड्रिंक एक झटके में उछलकर बोतल से बाहर हो गई और दादी के कपड़ों में गिर गई। दादी परेशान। तभी दूसरे पौते ने कहा कि दादी परेशान हो गई। उसने घरबाई दादी को कुछ इस तरह बैठने को कहा-दादीजी सोफे में बैठ जाओ। दादीजी कमरे में सुफ्फा (अनाज फटकने वाली छाज) तलाशने लगी। फिर वह बिगड़ी की मुझे सुफ्फे में बैठाएगा। कितना शैतान हो गया है गोलू। दादीजी को समझाया गया कि बैठने की गद्दीदार बड़ी कुर्सी को शहर में सोफा कहा जाता है। तब वह शांत हुई।

दादीजी की मुसीबत यहां भी कम नहीं हुई। रात को सोने के लिए दादीजी के लिए एक कमरे में बिस्तर लगाया गया। रात को सोने से पहले पोते ने समझाया कि जब सोने लगोगी तो बिजली का बटन आफ कर देना। दादी बोली मुझे सिखाता है। मैं लालटेन बंद करना जानती हूं। सुबह दादी के कमरे में उनकी बहू चाय लेकर पहुंची। देखा कि फर्श में कांच फैला हुआ है। सास आराम से सो रही है। बहू घबरा गई। उठाकर पूछा कि बल्ब कैसे फूट गया। इस पर सास ने उल्टे सवाल किया कि बहू कैसी लालटेन कमरे में टांगी। काफी देर तक फूंक मार-मार कर थक गई, लेकिन यह बुझने का नाम ही नहीं ले रही थी। फिर जूता मारकर बुझाने का प्रयास किया। जब निशाना सही नहीं लगा तो छड़ी उठाकर इसे फोड़ डाला।
मित्र बोले क्या तुम यह चाहते हो कि एसी जब बार-बार तंग कर रहा हो तो उसा बटन तोड़ दूं। यह नहीं हो सकता। मेरी नौकरी चली जाएगी। इससे अच्छा तो यह है कि एसी का अत्याचार सह लूंगा। अब देखो वही तो हो रहा है। नेताजी उल्लू बना रहे हैं, जनता सह रही है। कहीं तो उन पर थप्पड़ पड़ रहे है और कहीं कोई जूता तक फेंक रहा है। भारत से लेकर अमेरिका तक यही हाल है। सभी बड़े नेताओं पर जूतों का निशाना समय-समय पर लगाने का प्रयास होता रहता है। पर दादी के निशाने की तरह उनका भी निशाना चूक जाता है। नेताजी बेशर्म हैं। जितने ज्यादा जूते पड़ते हैं उतनी ज्यादा ही उनकी लोकप्रियता बढ़ती है। लोग नो उल्लू बनाईंग कहकर पुरानी बातें याद दिलाते हैं, लेकिन उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। क्योंकि उनकी नजर में पुरानी बातें तो सिर्फ चुस्कियां लेने भर की हैं, सबक लेने के लिए नहीं।
भानु बंगवाल

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